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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान:भाग 15

विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 15 (15-30)

रत्न / मणि

सिंधु घाटी सभ्यता काल में भी (1500 सदी ई. पू. से पहले) मनके, मणि, अपमूल्य (semi precious) मणि, जंबुमणि (amethyst), सूर्यकांति (jasper), अकीक (agate) फिरोजा (turquoise) आदि के बारे में जानकारी थी । इनमें से कुछ को पालिश किया गया था व उनमें सूक्ष्म छिद्र बनाने के संकेत भी मिलते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आदिकाल में भी बहुमूल्य पत्थरों पर काम करने में निपुणता प्राप्त थी ।

प्राचीन काल से रत्नों/मणियों का उपयोग आभूषणों में सजावट के लिये, आयुर्वेदीय औषधों में पारे के स्थिरीकरण हेतु, ग्रहों के दुष्प्रभाव का निवारण करके भाग्योदय व दीर्घायु के लिये भी होता था। रत्नों का महारत्नों व उपरत्नों में वर्गीकरण किया गया है ।

मॉर्टर, सीमेंट एवं ल्यूट (गारा):

प्राचीन मंदिरों, दुर्गों व भवनों की भारत में बहुलता है । तूफानी वर्षा, अंधड़, दिन में झुलसाने वाली सूरज की गर्मी व रात में अति शीत के रूप में प्रकृति के प्रकोप को इमारतों ने सैकड़ों वर्षों तक सहन किया है। इस संदर्भ में पत्थरों और ईटों को जोड़ने के लिये, इनमें प्रयुक्त मॉर्टर, सीमेंट एवं ल्यूट की जानकारी विशेष महत्व रखती है।

ताज़े गड्ढे से रेत लेकर मॉर्टर तैयार किया जाता था । इस रेत और चूना-पत्थर पाउडर को समान मात्रा में लेकर तीन दिन तक पानी में छोड़ दिया जाता था । तत्पश्चात् इस पर गुड़ के पानी का छिड़काव करके, इसे कूटा जाता था । इस पतले गारे के लेप को ईंटों पर लगाकर फिर इन्हें इमारतों में लगाया जाता था । इस प्रकार तैयार किया हुआ मॉर्टर इतना चिकना बन जाता था कि इमारतों में कहीं भी मोटे जोड़ नज़र नहीं आते थे। उन दिनों में, दूसरे देशों में प्रयुक्त मॉर्टर से यह मॉर्टर अधिक सूक्ष्म होने के साथ-साथ बेहतर गुणवत्ता वाला भी था । वराहमिहिर की ‘बृहत् संहिता’ में (छठी सदी) में एक पूरा अध्याय ‘वज्रलेपलक्षणाध्याय‘, आसंजकों पर है।

जिसमें सरस व अष्टगंध (Adementine) के बनाने की विधि व इनके गुणधर्म विस्तार से दिये गये हैं। मंदिर व भवन निर्माण आदि में और मंदिरों में मूर्तियों के स्थिरीकरण के लिये गर्म सरेस का प्रयोग किया जाता था। थोड़े से रूपांतर के साथ, कुछ काल पहले तक, इसे सतह के परिष्करण के लिये भी उपयोग में लाया जाता था । इसमें एक अन्य सरेस ‘वज्रतल’ का वर्णन भी मिलता है । 8 भाग सीसा, 2 भाग घंटी धातु व 1 भाग पीतल के पिघले गर्म घोल ‘वज्रसंघट’ को, धातुओं को जोड़ने के लिये प्रयोग किया जाता था ।

रासायनिक प्रयोगशाला उपकरणों को बंद करने हेतु प्लास्टर आफ पेरिस की तरह के ल्यूट का उपयोग किया जाता था । चूना, शहद, गुड़ व पीले गेरू को मिलाकर इसे तैयार किया जाता था । लकड़ी के अवयवों को जोड़ने के लिये गेहूं के आटे व चूने के मिश्रण ‘सूजी‘ का इस्तेमाल होता था।

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