Opinion

जलियाँवाला बाग स्मारक!

जलियाँवला बाग में 5,000 लोगों के बीच, डॉ. शष्टि चरण मुखर्जी भी थे, जो मूल रूप से पश्चिम बंगाल के हुगली के रहने वाले एक डॉक्टर थे। पर इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष, मदन मोहन मालवीय के साथ काम करने के लिए वे अलाहबाद आकर बस गए थे।

इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने न केवल पूरे देश में स्वतंत्रता आन्दोलन की तस्वीर बदल दी, बल्कि डॉ. मुखर्जी का भी जीवन पूरी तरह बदल दिया। कहते हैं कि घटना के सबूत हमेशा के लिए मिटा देने के इरादे से अंग्रेज़, जलियाँवला बाग़ की ज़मीन को एक कपड़ा-बाज़ार में तब्दील कर देना चाहते थे। पर इस बात का विरोध करते हुए डॉ. मुख़र्जी ने गाँधी जी को ख़त लिखा। उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस के आगे भी एक पेटीशन जारी की, जिसके ज़रिये उन्होंने यहाँ एक स्मारक बनवाने की मांग की।

साल 1920 में यह पेटीशन पारित हो गया और ज़मीन की कीमत 5.65 लाख रूपये रखी गयी। अब बस पैसों का इंतजाम करना था, और डॉ. मुख़र्जी का यहाँ एक स्मारक बनाने का सपना पूरा हो सकता था। जहाँ गाँधी जी ने सारे देशवासियों से इस महान कार्य के लिए दान करने की अपील की, वहीं डॉ. मुख़र्जी ने घर-घर जाकर लोगों से मदद मांगी। आखिर इन दोनों की मेहनत रंग लायी और उन्होंने करीब 9 लाख रूपये जमा कर लिए। जब ज़मीन को बेचा गया तो नीलामी रखी गयी, जिसे डॉ. मुख़र्जी ने जीत लिया और यह ज़मीन उनके नाम हो गयी।

इन सब से गुस्साएं ब्रिटिशों ने कुछ वक़्त के लिए डॉ. मुख़र्जी को गिरफ्तार तो किया, पर जल्द ही उन्हें मुख़र्जी को छोड़ना पड़ा और उन्हें इस स्मारक का पहला सचीव चुना गया। 1962 में डॉ. मुख़र्जी की मृत्यु के बाद उनके सबसे बड़े बेटे उत्तम चरण मुख़र्जी को इस स्मारक की बागडोर दी गयी।

आज उत्तम के बेटे और डॉ. शष्टि चरण मुख़र्जी के पोते, 65 वर्षीय सुकुमार मुखर्जी इस जगह की देखभाल करते हैं। 1988 में अपने पिता की मृत्यु के बाद से ही सुकुमार इस जगह को सँभालते हैं।

मुख़र्जी आम जनता से अपील करते हैं, कि यह जगह हुतात्माओं का स्मारक है, और उन्हें इस जगह को उतनी ही इज्ज़त देनी चाहिए, जितनी हम शहीदों को देते हैं। इस जगह की गरिमा बनाये रखने के लिए वे आम जनता से बस इतना चाहते हैं, कि जब वे यहाँ घूमने आये तब यहाँ कचरा न फेंके और इसे साफ़ रखने में सुकुमार के परिवार की मदद करें।

आज जब हम जलियाँवाला बाग़ के हुतात्माओं को याद कर रहे हैं, तो क्यूँ न एक सलाम इस परिवार को भी करें, जिनकी वजह से उन हुतात्माओं की यादें आज भी जिंदा है!

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