Opinion

राजद्रोह के मुकदमे में तिलक को फंसाने का षड्यंत्र

बम्बई के गवर्नर ने भारत मन्त्री को लिखा था, तिलक मुख्य षड्यन्त्रकारियों में से है या सबसे मुख्य षड्यन्त्रकारी हैं। उसके गणपति उत्सव, शिवाजी उत्सव, पैसा, फण्ड और राष्ट्रीय स्कूल, इन सबका एक ही उद्देश्य है-अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंका जाए।

सन् १८९७ ई. में उन पर पहली बार राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया। सरकार ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें जेल भेज दिया। भारत के वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न ने जब सन् १९०५ ई. में बंगाल का विभाजन किया, तो तिलक ने बंगालियों द्वारा इस विभाजन को रद्द करने की मांग का ज़ोरदार समर्थन किया और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार की वक़ालत की, जो जल्दी ही एक देशव्यापी आंदोलन बन गया। अगले वर्ष उन्होंने सत्याग्रह के कार्यक्रम की रूपरेखा बनाई, जिसे नए दल का सिद्धांत कहा जाता था। उन्हें उम्मीद थी कि इससे ब्रिटिश शासन का सम्मोहनकारी प्रभाव ख़त्म होगा और लोग स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु बलिदान के लिए तैयार होंगे।
श्री रेंड और लेफ्टिनेंट आयर्स्ट की हत्या कुछ अज्ञात लोगों द्वारा २२ जून को कर दी गई। इससे बंबई और पूना में, विशेष रूप से ‘एंग्लो इंडियन समुदाय’ में जबरदस्त उत्तेजना फ़ैली। २६ जुलाई को बंबई सरकार ने तिलक पर मुक़दमा चलाने की मंजूरी प्रदान की और २७ जुलाई को पूर्वी भाषाओं के अनुवादक बेग ने बंबई के ‘चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट’ जे. सेंडर्स स्लेटर के सामने सूचना रखी। २७ जुलाई की रात में तिलक को बंबई में गिरफ़्तार कर लिया गया और दूसरे दिन उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। इसके फौरन बाद मजिस्ट्रेट के सामने ज़मानत की अर्जी दाख़िल की गई।

सरकार ने दृढ़ता और सफलता के साथ इसका विरोध किया। २९ जून को इसी तरह की एक अर्जी उच्च न्यायालय में दाख़िल की गई, जिसे फिर से आवेदन करने की अनुमति के साथ अस्वीकार कर दिया गया। २ अगस्त को यह केस हाई कोर्ट सेशन के सुपर्द कर दिया गया और अध्यक्ष न्यायाधीश, न्यायमूर्ति बदरुद्दीन तैयबजी के सामने जमानत की अर्जी फिर दाख़िल की थी। ज़मानत की अर्जी का प्रबल विरोध एडवोकेट जनरल ने किया लेकिन न्यायाधीश ने तिलक को ज़मानत दे दी।
यह मुक़दमा ८ सितंबर को सुनवाई के लिए आया। सुनवाई एक सप्ताह तक चली। कलकत्ता बार के श्री प्यू और उनकी सहायता के लिए श्री गार्थ बचाव पक्ष में तिलक की ओर से और एडवोकेट जनरल श्री बेसिल लाग अभियोजन पक्ष की ओर से थे। न्यायमूर्ति स्ट्रैची ने मुक़दमें की सुनवाई की। जूरी के सदस्य थे पाँच यूरोपीय ईसाई, एक यूरोपीय यहूदी, दो हिन्दू और एक पारसी। जूरी के छह यूरोपीय सदस्यों ने आरोपी को दोषी ठहराया, जबकि तीन देशी सदस्यों ने उन्हें निर्दोष माना। न्यायाधीश ने बहुमत के निर्णय को स्वीकार कर लिया और तिलक को अठारह महीने की कड़ी क़ैदी की सज़ा सुनाई।

जब जूरी के सदस्य अपने निर्णय पर विचार करने के लिए चले गए थे, अभियुक्त की ओर से न्यायाधीश को आवेदन दिया गया कि क़ानून के कुछ प्रश्न पूरी बैंच के विचारार्थ सुरक्षित कर दिए जाएँ। इस आवेदन को स्वीकार नहीं किया गया। बाद में ‘एडवोकेट जनरल’ को दिया गया इसी तरह का एक प्रार्थनापत्र नामंजूर कर दिया गया। १७ सितंबर, सन् १८९७ ई. को उच्च न्यायालय से यह प्रमाणपत्र जारी करने का अनुरोध किया गया कि यह केस ‘प्रिवी काउंसिल’ में अपील करने योग्य है इस आवेदन की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश सर चार्ल्स फैरन, न्यायमूर्ति कैंडी और न्यायमूर्ति स्ट्रैची ने की और उसे अस्वीकार कर दिया।

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