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कुंभ की आवश्यकता

बंजारा(banjara) और लबाना नायकड़ा समुदाय का कुंभ जलगांव(kumbh jalgaon) जिले के गोदरी(godri) में हो रहा है। इससे पहले 2006 में गुजरात में शबरी कुंभ और 2020 में मध्य प्रदेश(madhypradesh) में नर्मदा कुंभ का आयोजन किया गया था। कुम्भ का अर्थ है संतों का एकत्रीकरण। चर्चा, अभ्यास और विचारों के आदान-प्रदान के लिए देश भर के संत एक साथ आते हैं। इस अवसर पर सामाजिक और वैचारिक घुसपैठ होती है और राष्ट्र को गति और दिशा मिलती है। हर चार साल में होने वाले सिंहस्थ कुंभ और इस कुंभ के बीच एकमात्र अंतर रूप और स्थान में है। बाकी मकसद वही है। लेकिन हिन्दू समाज को ऐसा कुम्भ क्यों लेना पड़ रहा है? हिंदू संतों और समाज का उद्देश्य क्या है? इसे समझना जरूरी है।

गुजरात(gujrat) में शबरी कुंभ आयोजित करने का कारण भील जनजाति की एक अलग धर्म और भीलिस्तान की मांग थी, वहीं गोण्डी  समुदाय भी यह मांग कर हिंदू धर्म से अलग हो रहा था कि वह हिंदू नहीं बल्कि उनका गोंडी धर्म है। भील और गोंडी समुदाय को हिंदू धर्म से अलग कर आगे एक अलग देश की मांग करना इसके पीछे का असली कारण था । इसलिए यह कुंभ जागृत जनजाति बंधुओ के नेतृत्व मे देश की अखंडता के लिए लिया गया।

बंजारा कुंभ(banjara kumbh) का एक समान उद्देश्य है। पिछले 15 से 20 सालों में गोर बंजारा समाज में दो बड़ी चुनौतियां सामने आईं। एक है ईसाई धर्म का प्रचार और दूसरा है गोर धर्म का प्रचार। तेलंगाना, विदर्भ, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश के प्रांतों में धर्मांतरण की दर बहुत बढ़ गई और महाराष्ट्र में अप  प्रचार शुरू किया गया कि बंजारे हिंदू नहीं बल्कि उनका  गोरधर्म हैं। इसलिए बंजारा समुदाय के पूज्य संतों, और सज्जनों ने पहल की और कुंभ करने का फैसला किया।

ऐसा क्यों है कि हर कुछ वर्षों में विभिन्न जातियों और जनजातियों के बीच यह धारणा बन जाती है कि हम हिंदू नहीं हैं, लेकिन हमारा कोई और धर्म है? यह बहुत गहरा प्रश्न है। आज की स्थिति में हालांकि इसके पीछे मंशा राजनीति है, इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं। यहां तक ​​कि खुद को शिक्षित कहने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी यह एहसास नहीं है कि हम अभी भी उस जहर को पिला रहे हैं जो अंग्रेजों ने भारतीय समाज को विभाजित करके अपना शासन चलाने के लिए फैलाया था।

भारत(bharat) में इस अलगाववादी जहर को फैलाने वाले अंग्रेज अधिकारी का नाम मैक्स आर्थर मैकऑलिफ था। 1864 में इसने पंजाब प्रांत में प्रवेश किया। उन्हें एशियाटिक सोसाइटी ने भेजा था, जो लंबे समय तक भारत पर राज करने के लिए सामाजिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अध्ययन कर समाज को बदलने का काम करती थी । उन्होंने 30 साल तक उपायुक्त के पद पर काम किया। पंजाब जाने के बाद, उन्होंने सबसे पहले सिख धर्म अपनाने की घोषणा की और अपना नाम बदलकर मैक्स सिंह रख लिया। उन्होंने अपने सिर पर सिख पगड़ी के साथ सिखों के बीच रहकर समाज में एक सम्मानजनक स्थिति स्थापित की और बाद में यह सिद्धांत स्थापित किया कि सिख धर्म हिंदू धर्म से अलग है । इसी सिद्धांत पर छह खंडों वाली पुस्तक ‘सिख धर्म’ का निर्माण भी किया गया।

1871 में जब पहली जनगणना हुई तो सभी सिखों ने लिखा कि वे हिंदू हैं, लेकिन जैसे-जैसे जनगणना आगे बढ़ी, हिंदुओं की संख्या घटती गई और सिखों की संख्या बढ़ती गई। यह अंग्रेज थे जिन्होंने पहली बार जनगणना में सिख धर्म के रूप में एक अलग योजना बनाई। उन्होंने जनजाति समाज  के साथ भी यही तरीका अपनाया। उन्होंने भी मूलनिवासी – आदिवासी का नाम देकर उससे अलग होने की साजिश रची। आज पंजाब में बहुसंख्यक सिख समुदाय खुद को हिंदू नहीं मानता है, लेकिन एक अलग देश खालिस्तान(khalistan) की मांग कर चुका है, जो और भी खतरनाक है। महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के भी कुछ भीलों ने भीलिस्तान आंदोलन चलाया और अलग देश की मांग करने लगे थे । इससे पता चलता है कि अलग धर्म की मांग किस ओर ले जाती है।

आज देश में सिख धर्म, गोंडीधर्म, सरना धर्म, लिंगायतधर्म, शिवधर्म जैसी विभिन्न मांगें रही हैं। यहां तक ​​कि बंजारा समुदाय में भी कुछ देशद्रोही संगठन यह प्रचारित कर रहे हैं कि वे हिंदू नहीं बल्कि उनका  गोर धर्म के हैं। सज्जन शक्ति और जाग्रत हिन्दू समाज के होते हुए उन्हे सफलता नहीं मिलेगी।  लेकिन इससे सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय क्षति होती है।

अंग्रेज चले गए लेकिन उन्होंने जो अलगाव और जातिवाद के बीज बोए थे उसकी  खेती कम्युनिस्ट संगठन और नक्सलियों ने कायम की। किसी भी तरीके से वे भारतीय समाज को खंडित करना चाहते हैं। उसके लिए इन सामाजिक विनाशकारी ताकतों ने हिंदू समाज को विभाजित करने और फिर भारत को विभाजित करने की एक बहुत ही खतरनाक योजना बनाई है। ऐसी चुनौतियों का सामना करते समय संतों की दिव्य वाणी से जागृत होना आवश्यक है। इसलिए समय-समय पर संतों के मार्गदर्शन में कुंभ का आयोजन किया जा रहा है। यह कुंभ किसी विशेष संगठन, संप्रदाय, संप्रदाय, जाति, जनजाति का नहीं, बल्कि पूरे भारत का है। इससे राष्ट्रीय जागृति आएगी, समाज शक्तिशाली और संघटित बनेगा यह निश्चित है !

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