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प्राचीन भारत के विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक:- भाग 6

विशेष माहिती श्रृंखला – (6-7)

6] खगोलशास्त्री आर्यभट:

महान खगोलशास्त्री, ज्योतिषविद् व गणितज्ञ आर्यभट ने सबसे पहले कहा था कि पृथ्वी गोल है और अपने अक्ष या धुरी पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है, जिसके कारण रात-दिन होता है। 16वीं सदी में पोलैंड के खगोलवेत्ता कोपरनिकस ने यही बात कही। विडंबना देखिए, भारत समेत पूरी दुनिया में कोपरनिकस का ही सिद्धांत मान्य है। मात्र 23 वर्ष की उम्र में कोपरनिकस ने ‘आर्यभटियम’ लिखा, जिसमें नक्षत्र – विज्ञान और गणित के 120 सूत्र दिए। इन्हें ‘आर्यभट की टीकाएं’ कहा जाता है। इसमें आधुनिक विज्ञान के कई सूत्र हैं। जैसे- पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना, पाई का सटीक मान, सूर्य व चंद्र ग्रहण की व्याख्या, समय गणना, त्रिकोणमिति, ज्यामिति, बीज गणित आदि के कई सूत्र व प्रमेय ‘आर्यभटीय’ में मिलते हैं। इसके गोलपाद खंड के नौवें श्लोक में पृथ्वी के घूर्णन को स्पष्ट करते हुए आर्यभट लिखते हैं,

अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत् । अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम् ।।

अर्थात् जिस प्रकार से नाव में बैठा मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है तो उसे लगता है कि पेड़-पौधे, पत्थर और पर्वत आदि उल्टी दिशा में जा रहे हैं, उसी प्रकार अपनी धुरी पर घूम रही पृथ्वी से जब हम नक्षत्रों की ओर देखते हैं तो वे उलटी दिशा में जाते हुए दिखाई देते हैं। इस श्लोक के जरिए उन्होंने पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने की प्रक्रिया को समझाने की कोशिश की है।

7]भास्कराचार्य का गुरुत्वाकर्षण नियम:

न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व भास्कराचार्य ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का प्रतिपादन कर लिया था। उन्होंने ‘सिद्धांत शिरोमणि’ में लिखा है, “पृथ्वी अपने आकाश का पदार्थ स्वशक्ति से अपनी ओर खींच लेती है। इस कारण आकाश का पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है। इससे सिद्ध होता है कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति है । ” सर्वप्रथम भास्कराचार्य ने ही बताया कि जब चंद्रमा सूर्य को ढक लेता है तो सूर्य ग्रहण तथा पृथ्वी की छाया चंद्रमा को ढकती है तो चंद्र ग्रहण होता है। लोगों को गुरुत्वाकर्षण, चंद्र और सूर्य ग्रहण की सटीक जानकारी मिलने का यह पहला लिखित प्रमाण था।

8]ब्रह्मगुप्त की विद्या:

एक बार महान दार्शनिक बटैंड रसेल से पूछा गया कि विज्ञान के क्षेत्र में भारत की सबसे महत्वपूर्ण देन क्या है, तो उनका उत्तर था- ‘जीरो‘ यानी शून्य शून्य से दाशमिक स्थानमान अंक पद्धति निकली, जिसका आविष्कार गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने किया था। यह पद्धति भारत की विश्व को सबसे बड़ी बौद्धिक देन है। आज विश्व में इसी अंक पद्धति का उपयोग होता है। यह अंक पद्धति अरबों के जरिये यूरोप पहुंचकर ‘अरबी अंक पद्धति’ और अंततः ‘अंतरराष्ट्रीय अंक पद्धति’ बन गई। भारतीय संविधान में इस अंक पद्धति को ‘भारतीय अंतरराष्ट्रीय अंक पद्धति कहा गया है। प्रसिद्ध विद्वान काजोरी ने ‘हिस्ट्री ऑफ मैथमैटिक्स’ में लिखा है कि 600 ई. तक भारतीय गणितज्ञों ने ऐसे-ऐसे उच्च सिद्धांतों का आविष्कार कर लिया था, जिनका ज्ञान यूरोपीय विद्वानों को सदियों बाद हुआ। वैदिक गणितज्ञ मेधतिथि 1012 तक की बड़ी संख्याओं से परिचित थे। वे अपनी गणनाओं में दस और इसके गुणकों का उपयोग पूरी सहजता से करते थे। ‘यजुर्वेद संहिता’ के अध्याय 17 के दूसरे मंत्र में 10,00,00,00,00,000 (दस खरब) तक की संख्या का उल्लेख मिलता है।

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