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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान: भाग 13

विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 13 (13-30)

रंजक पदार्थ तथा स्याही

18 वीं सदी के अंत तक, कपड़ा उद्योग में भारत अग्रणी था । इसके सुंदर सूती, सिल्क, ऊन और जूट से निर्मित रंगीन कपड़ा उत्पादों ने अति प्राचीन काल से ही विश्व भर को अपनी ओर आकर्षित किया है। अजंता के भित्ति चित्रों में प्रयुक्त रंग सैंकड़ों वर्षों के बाद भी फीके नहीं पड़े हैं।

प्राचीन भारतीय साहित्य में सौ से अधिक खनिज, वनस्पति व पशु मूल के रंजकों का वर्णन मिलता है। इस बात के प्रमाण मिले हैं कि सिंधु घाटी के लोग मंजिष्ठ के लाल रंजक का उपयोग करते थे। इसे मंजिष्ठ की जड़ से तैयार किया जाता था। मंजिष्ठ, टर्की रेड या ऐलिजारिन के समान होता है।

बृहत् संहिता में, फिटकरी व आयरन सल्फेट जैसे रंगबंधकों (धात्विक लवणों) के उपयोग से कपड़ों के लिए पक्के रंजको का वर्णन है। रसरत्न समुच्चय में फिटकरी को एक बंधक द्रव्य (मंजिष्ठा राग बंधिनि) कहा गया है। कुछ कीड़ों से उत्पन्न लाख में 12% लाल रंजक और शेष रेजिन होता है। रंजन उद्योग में लेक शब्द लाख से ही आया है।

अजंता भित्ति चित्रों में अकार्बनिक रंजक द्रव्य-लाल और पीले ओकर (गैरिक), सिनाबार, रेडलेड, लिथार्ज, मृत्तिका खनिज और कार्बन ब्लैक आदि का उपयोग किया गया था।

रस रत्नाकर में ताल पत्र व भोजपत्र पर लिखने के लिये अमिट स्याही का वर्णन है। यह तीन हरड़ (इकलिप्टा, अल्बा, बर्बेरिस), अंकन नट (धोबियों द्वारा कपड़ों पर अंकन के लिए प्रयुक्त) ओलिऐंडर, बॉबगम और लैम्प की कालिख से बनती थी ।

पौधों के फलों, गिरियो, छालों, फूलों और पत्तों से निर्मित, 20 से अधिक प्राचीन भारतीय रंजकों का विवरण मिलता है।

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