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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान:भाग 21

विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 21 (21-30)

आयुर्वेद चिकित्सा और भारतीय विज्ञान

प्रचलित मान्यता के अनुसार, आयुर्वेद की रचना अथर्ववेद के एक उपवेद के रूप में ब्रह्माण्ड के रचयिता ब्रह्मा जी ने की थी। तत्पश्चात् ब्रह्मा से सीखकर, दक्ष प्रजापति ने इसे अश्विनी कुमारों तक पहुंचाया। कई अन्य ऋषियों से होते हुये, आयुर्वेद तीन विभिन्न शाखाओं (चरक, सुश्रुत एवं कश्यप) में विकसित हुआ।

मूलतः आयुर्वेद के आठ अंग है काया चिकित्सा, शल्य तंत्र, भूत विद्या (मनोचिकित्सा), रसायन (जरा चिकित्सा), शालय तंत्र (नेत्र चिकित्सा), अगद तंत्र (विष विज्ञान) कौमार मृत्य (बाल चिकित्सा) तथा कजीकरण (यौन चिकित्सा) ।

काया चिकित्सा (शारीरिक चिकित्सा) ज्वर, मिरगी, कुष्ठ रोग व अन्य चर्म विकारों का प्रबंधन।

शल्यतंत्र (शल्य चिकित्सा)- शरीर से सभी प्रकार के हानिकारक तत्वों, मवाद, खावण आदि का निकालना, काटरण, पाथ उपचार, छोटे या बड़े आपरेशन आदि इसी के अंतर्गत आते हैं।

भूत विद्या (मनोचिकित्सा) अज्ञात मूल की व्याधियों (जिनका कारण भूत, प्रेत, जादूटोना आदि को माना जाता है) का उपचार।

रसायन तंत्र (जरा चिकित्सा) यौवन को बनाये रखने एवं आयु व बुद्धि को बढ़ाने के साधन

शालक्यतंत्र (नेत्र तथा कान-नाक-कंठ चिकित्सा): हंसली के ऊपर के रोगों का प्रबंधन अगद तंत्र (विष विज्ञान): जहरीले प्राणियों के देश तथा अन्य विषों का प्रबंधन एवं कानूनी पक्ष कीमार मृत्य(बाल चिकित्सा) गर्भावस्था व स्त्रीरोग संबंधी समस्याएं एवं नवजात शिशुओं व बच्चों की बीमारियों का निदान तथा चिकित्सा |

स्वास्थ्य के तीन प्रमुख स्तंभ

1. सत्व (मन तथा ज्ञानेन्द्रियां)

2. आत्मा

3. शरीर

स्वास्थ्य के तीन सहायक स्तंभ

भोजन, निद्रा व यौनाचार पर नियंत्रण इन से शरीर को बल मिलता है। रंग-रूप में निखार आता है एवं उचित विकास व दीर्घायु की प्राप्ति होती है।

त्रयोपस्तंभा इतिआहार: स्वप्नो (निद्रा) ब्रह्मचर्यमिती

Ch. Su. 11-35.

आयुर्वेद के अनुसार, स्वास्थ्य की रक्षा हेतु मनुष्य को

निम्नलिखित बातों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए:

• दिनचर्या, • ऋतुचर्या, आहार

दिनचर्या दैनिक जीवन में अनुशासन का पालन करने से + एक स्वस्थ जीवन प्रणाली को कायम रखा जा सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु आयुर्वेद में दिनचर्या के लिए कुछ नियम निर्धारित किये गये हैं। वे है सूर्योदय से पूर्व जागरण, स्वच्छ आचरण, योगिक व्यायाम, प्राकृतिक क्रियाओं (मल मूत्र आदि) को यथासमय पूरा करना, ईश्वर, गुरु व बड़ों का आदर करना, दूसरों की सहायता करना एवं अवांछित स्थानों मदिरा से दूर रहना ।

ऋतुचर्या आयुर्वेद कहता है कि प्रत्येक मनुष्य के लिए ऋत्विक व्यवस्था का पालन करना आवश्यक है। उसे ऋतु परिवर्तन के अनुसार अपने भोजन, जीवन-शैली व पहनाने में परिवर्तन करना चाहिए ।

ऋतुओं का त्रिदोषों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आरंभिक सर्दी व वर्षा से बात प्रभावित होता है। गर्मी में पित्त बढ़ता है और सर्दी के उत्तरार्ध में कफ।

आहार :चरक के अनुसार

1. भोजन गर्म व ताजा हो और उसमें पोषक तत्व उचितमात्रा में हों।

2. यह उचित मात्रा में सेवन किया जाये।

3. एक दूसरे से विरोधी प्रभाव वाला भोजन एक साथ नखाया जाये ।

4 पहले खाये गये भोजन के पचने के बाद ही दोबारा भोजन किया जाये।

5. भोजन का स्थान साफ-सुथरा हो ।

6. भोजन अति शीघ्रता या अधिक धीरे से न किया जाए।

7. भोजन करते समय बोलना व हंसना नहीं चाहिये ।। केवल खाने पर ही ध्यान केंद्रित करनाअच्छा है।

8. व्यक्तिगत प्रकृति के अनुसार ही खाद्य पदार्थों का चयन करना चाहिये ।

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