Opinion

सिद्धांतों के लिए सम्बन्ध-त्यागी तिलक

तिलक शुरू से ही इस मत के थे कि आजीवन सदस्यों को सादा जीवन बिताना चाहिए और अपना संपूर्ण समय तथा ऊर्जा अध्यापन-कार्य में लगानी चाहिए।अधिकतर सहयोगियों के सहमत न होने के कारण तिलक ने अपना त्यागपत्र भेज कर सोसाइटी से अपने सभी संबंध समाप्त कर लिये।

सन १८८८ ई. के दौरान तिलक और आगरकर के बीच सामाजिक और धार्मिक प्रश्नों पर मतभेद शुरू हो गए थे। इनके कारण ‘श्री आगरकर’ ने ‘केसरी’ के सम्पादक पद से इस्तीफ़ा दे दिया और अपने पत्र ‘सुधारक’ का प्रकाशन शुरू किया। इसी समय यह स्पष्ट हो गया कि स्कूल और कॉलेज तथा समाचारपत्रों के हित एक से नहीं हैं। अत: उनका विभाजन कर दिया गया, जिसके अनुसार ‘आर्य भूषण प्रेस’ और दो समाचारपत्र तिलक, प्रो. केलकर और एच.एन. गोखले की संपत्ति बन गए। प्रो. केलकर दोनों पत्रों के प्रभारी संपादक बना दिए गए। स्कूल और कॉलेज के साथ तिलक का संबंध सन् १८९० ई. में समाप्त हो गया। वे कारण जिनकी वज़ह से ये संबंध समाप्त हुए, अनेक और अलग-अलग थे। वास्तव में विघटन की प्रक्रिया काफ़ी पहले शुरू हो गई थी। ‘विष्णु शास्त्री’ के जीवन काल में ही ‘चित्रशाला’ एक स्वतंत्र प्रतिष्ठान हो गया था। यह स्थिति सन् १८९० ई. तक रही.

अगर नए मतभेदों के कारण संबंधों में दरार अधिक चौड़ी नहीं होती तो अनिश्चितकाल तक चलती रहती, । ये मतभेद मुख्य रूप से उन सिद्धांतों के बारे में थे, जिनसे आजीवन सदस्यों का आचरण और स्कूल का प्रबंध नियंत्रित होता था। यह स्थिति सन् १८८९ . में ‘प्रो. गोखले’ के सार्वजनिक सभा का सदस्य बनने से पैदा हुई। तिलक शुरू से ही इस मत के थे कि आजीवन सदस्यों को ‘जेसुइट पादरियों’ की तरह सादा जीवन बिताना चाहिए और अपना संपूर्ण समय तथा ऊर्जा अध्यापन-कार्य में लगानी चाहिए। उनके अधिकतर सहयोगी इस बात से सहमत नहीं थे।

तिलक के विचारों से उनके अधिकतर सहयोगियों के सहमत न होने के कारण तिलक ने नवंबर, सन् १८९० ई. में अपना त्यागपत्र भेज कर सोसाइटी से अपने सभी संबंध समाप्त कर लिये। प्रोफेसर के रूप में तिलक अत्यंत लोकप्रिय थे। वे गणित के स्थायी प्रोफेसर थे और बीच-बीच में संस्कृत तथा विज्ञान के प्रोफेसर के रूप में भी कार्य करते थे। मौलिकता और एक-एक बात का ध्यान रखना उनका आदर्श वाक्य था और वे जो भी विषय पढ़ाते थे उसमें उनके छात्रों को कभी भी शिकायत करने का अवसर नहीं मिलता था। गणितज्ञ के रूप में उनका जवाब नहीं था और वे अपने छात्रों को अक्सर ‘डेक्कन कॉलेज’ के ‘प्रो. छत्रे’ की याद दिलाते थे, जो तिलक के गुरु भी थे।कॉलेज से इस्तीफ़ा देने के बाद तिलक ने क़ानून की कक्षा शुरू की। यह ‘बंबई प्रेसीडेंसी’ में अपने ढंग का पहला शैक्षणिक संस्थान था जो छात्रों को हाईकोर्ट और वक़ालत की परीक्षा के लिए तैयार करता था। उन्होंने ‘केसरी’ का भार भी अपने ऊपर ले लिया।

प्रो. केलकर वर्ष के अंत तक ‘मराठा’ के संपादक बने रहे, परंतु शीघ्र ही उन्हें भी समाचारपत्र के साथ अपना संबंध पूरी तरह समाप्त कर देना पड़ा। तब तिलक दोनों पत्रों के संपादक बन बए। एक वर्ष इन दोनों के बीच प्रेस और समाचारपत्रों का विभाजन हो गया। तिलक ‘केसरी’ और ‘मराठा’ समाचारपत्रों के एकमात्र मालिक और संपादक हो गए। प्रो. केलकर और श्री गोखले ‘आर्य भूषण प्रेस’ के मालिक रहे। दोनों समाचारपत्रों को अपने जन्म के बाद इस तरह अनेक उतार-चढ़ावों से गुज़रना पड़ा। तिलक द्वारा केसरी को संभालने के बाद उसकी ग्राहक संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई। तब इसकी ग्राहक संख्या देश के किसी भी अन्य समाचारपत्र की ग्राहक संख्या से बहुत अधिक थी।

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