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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान:भाग 24

विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 24 (24-30)

कांस्य प्रौद्योगिकी और भारतीय विज्ञान

3000 ई. से भी पहले सिंधु घाटी सभ्यता में कांस्य की जानकारी थी । लुप्तमोम ढलाई, तापन या घन-ताड़न प्रक्रियाओं द्वारा कांसे की वस्तुएं बनाई जाती थीं । मोहनजोदड़ों में कांस्य की ढलाई-कला का एक सुस्थापित उद्योग था । कलात्मक व सज्जायुक्त पदार्थों के निर्माण हेतु, कांस्य को एक अनिवार्य घटक माना जाता था । गोदावरी की एक सहायक नदी प्रवर, के तट पर दायमाबाद से हड़प्पा काल (2000-1800 ई. पू.) के अंतिम चरणों की प्रतिमायें मिली हैं ।

प्रतिमा निर्माण की परंपरा, बौद्ध काल से आरंभ हुई । अमरावती समूह की बौद्ध-कांस्य प्रतिमाएं इस तरह की पहली मूर्तियां हैं जो आजकल चेन्नई, कोलंबो, क्वालालंपुर व हनोई आदि कई संग्रहालयों में हैं । कुषाण काल, की एक कास्ट कांस्य प्रतिमा प्राप्त हुई है। द्वितीय शताब्दी,की एक कास्ट कांस्य प्रतिमा प्राप्त हुई है।

गुजरात, बिहार (नालंदा) व उड़ीसा में आकर्षक प्रतिमा निर्माण की कला काफी विकसित थी । इन क्षेत्रों में कई सौ बौद्ध मूर्तियां पायी गयी हैं।

चोल राजाओं के काल की लगभग 350 बौद्ध और ब्राह्मणी कांस्य प्रतिमाएं तंजौर के नागपट्टिनम (तमिलनाडु) से प्राप्त हुई हैं। उस काल की सुंदर मूर्तियां, भारत के लिए गौरव का विषय हैं और दार्शनिक व प्रौद्योगिकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण भाग हैं।

पीतल प्रोद्योगिकी

मानव निर्मित शिल्पकृतियों में जस्ते का उपयोग तांबे की मिश्रधातु पीतल के रूप में हुआ जस्ते के पृथकन से पूर्व पीतल निर्माण की प्रारंभिक विधि सीमेंटन प्रक्रिया संभवतः, इस प्रकार थी सूक्ष्म ताम्र टुकड़ों को जस्ते के भर्जित (roasted) अयस्क व चारकोल के साथ मिला कर एक बंद क्रुसिबल में 1000 डिग्री सेंटीग्रेड पर गर्म किया जाता था। चारकोल द्वारा जिन्क आक्साइड के अपचयन से जिन्क वाष्प बनती है ताम्र व जिन्क वाष्प की परस्पर अभिक्रिया से पीतल का निर्माण होता है 1083°C पर ताम्र पिघल कर कुसिबल के निचले भाग में बैठ जाता है। इसके कारण पीतल निर्माण प्रक्रिया के लिए कम क्षेत्र उपलब्ध रहता है। अतः इस प्रक्रिया से प्राप्त पीतल में जिन्क की अधिकतम मात्रा 28% ही हो सकती है। इसके अधिक जस्ते वाला पीतल बनाने के लिए, जस्ते को अलग से मिलाना आवश्यक है।

यूनानियों के भारत में आने से पहले के काल की प्राचीनतम, पीतल की शिल्पकृतियाँ लोथल से प्राप्त हुई है। चौथी शताब्दी की, तक्षशिला की अद्वितीय शिल्पकृतियों में पीतल प्रौद्योगिकी अपनी पराकाष्ठा पर थी। इसका उत्पादन, जिन्कयुक्त ताम्र अयस्क या सीमेंटन प्रक्रिया द्वारा किया गया होगा कच्चा माल राजस्थान के अहाड़-जवार क्षेत्र से आया होगा। इस प्रकार की सामग्री अंतरंजी खेड़ा में भी पायी गयी है। 28% से अधिक मात्रा के जस्ते वाला पीतल, जो शुद्ध जस्ता धातु के पृथकन के बाद ही संभव था, तक्षशिला से प्राप्त हुआ है। एक 34.34% जिन्क युक्त पात्र प्राप्त हुआ है जिस से यह सिद्ध होता है कि ई.पू. चौथी सदी में जस्ता धातु उपलब्ध थी। राजस्थान में संभवतः यह और भी पहले पायी जाती थी। स्पष्ट है कि 6 बी व 7 वीं शताब्दी में भारत में पीतल क्रांति पूर्ण रूपेण विकसित थी और उस काल में पीतल की अनेक वस्तुओं का निर्माण किया गया था।

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