पश्चिमी परिवेश में रंगी वर्तमान पीढ़ी के लिए राष्ट्र का अर्थ जमीन का टुकड़ा मात्र है इसीलिए उन्हें अखंड भारत अप्रासंगिक लगता है जबकि राष्ट्र व राष्ट्र-राज्य के बीच के अंतर को समझने की आवश्यकता है। अखंड भारत का अर्थ जमीन का टुकड़ा नहीं है बल्कि जिन देशों में पहले सनातन संस्कृति प्रवाहमान थी, वहां एक बार फिर से सनातन संस्कृति जीवन का आधार बन सके।
अखंड भारत की बात हम स्वतंत्रता के उपरांत से ही करते रहे हैं। इस अवधारणा को कई लोग खासकर आज की पीढ़ी के युवा, अव्यवहारिक भी मानते हैं। इस अवधारणा का विरोध करने वाले अक्सर यह प्रश्न पूछते हैं कि क्या अखंड भारत बनने का मतलब यह होगा कि हम पाकिस्तान, बांग्लादेश सहित अन्य पड़ोसी देशों को भौगालिक रूप से एक इकाई के रूप में वर्ततान भारत के साथ जोड़ेंगे? क्या अखंड भारत की कल्पना में केवल भारतीय उपमहाद्वीप ही शामिल है? हिंदू संस्कृति के गहन प्रभाव वाले कंबोडिया, वियतनाम, थाइलैंड, इंडोनेशिया जैसे देश इस अखंड भारत की अवधारणा में कहां स्थान पाते हैं? क्या कोई भी अन्य देश अपना अस्तित्व छोड़कर अखंड भारत को साकार करने के लिए एक इकाई में अपने विलय के लिए तैयार होगा? क्या इसकी सम्भावना व्यवहारिक दृष्टि से कहीं दूर तक भी नज़र आती है?
“हमने भूमि, जन और संस्कृति को कभी एक-दूसरे से भिन्न नहीं किया अपितु उनकी एकात्मता की अनुभूति के द्वारा राष्ट्र का साक्षात्कार किया। अखंड भारत इस राष्ट्रीय एकता का ही पर्याय है।” पं. दीनदयाल उपाध्याय
इन प्रश्नों का उत्तर वैसे तो एक ही वाक्य में दिया जा सकता है- अखंड भारत एक ऐसे अनवरत सांस्कृतिक प्रवाह की अवधारणा है जिसके मूल में अध्यात्म है, पदार्थवाद नहीं। इसलिए अखंड भारत की अवधारणा में भौगोलिकता गौण है। आवश्यक नहीं कि सभी देश आपस में विलय करें। भारतीय अथवा हिंदू संस्कृति की जो अनश्वर चेतना है वह पृथ्वी के एक बड़े भूभाग पर बसे समाजों व समुदायों के धर्म आधारित जीवन का आधार रही है। समय के साथ इस्लामी आक्रांताओं, नस्लवाद, उपनिवेशवाद और इस्लामी प्रचारकों तथा ईसाई मिश्नरियों द्वारा चलाई गई मत-परिवर्तन की आंधी में ये शाश्वत मूल्यों पर आधारित चेतना कई भू-भागों व सामाजिक समुदायों में लुप्त हो गई। भारत में भी इस सांस्कृतिक चेतना को स्वतंत्रता के बाद समाप्त करने का प्रयास किया गया। पर शाश्वत मूल्यों पर आधारित चेतना का स्वरूप मूलत: आध्यात्मिक होता है, इसलिए इसे समाप्त करना सम्भव नहीं हो पाया। भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व कई अन्य आध्यात्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संगठनों के प्रयासों से पुन: इस भारतीय चेतना का एक प्रखर स्वरूप हमें उभरता हुआ दिखाई दे रहा है। यह चेतना अभी भी पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग पर व्याप्त है। जब यह चेतना इन भूभागों पर प्रखर स्वरूप में उभरेगी तो अखंड भारत का स्वप्न साकार होगा। भले ही राजनीतिक मानचित्र पर सभी देशों का नाम भारत न हो, पर जहां भी भारतीय चेतना के मूल्यों की पुन: स्थापना होगी, वे सभी भू-भाग व समाज ‘अखंड भारत’ का हिस्सा होंगे।
असल में अखंड भारत को लेकर दुविधा व्यक्त करने वाले प्रश्नों के उठने का कारण है, राष्ट्र व राष्ट्र-राज्य के बीच के अंतर को न समझ पाना। पश्चिम में राजनीति विज्ञान के नजरिए से किसी देश की अवधारणा को केवल एक भौगोलिक आधार दिया गया है। पश्चिमी देश मूलत: जमीन के किसी एक भूभाग को देश या राष्ट्र-राज्य का नाम देते हैं। लेकिन भारतीय दृष्टिकोण इससे अलग है। भारत में राष्ट्र की अवधारणा मूलत: सांस्कृतिक पक्ष पर टिकी है। भारतीय वांग्मय को आप देखें तो पता चलता है कि कुछ विशिष्ट सभ्यतागत मूल्यों को स्वीकार कर उन्हें अपने जीवन में धारण करने की संस्कृति को राष्ट्र का नाम दिया गया है। इसमें भूगोल गौण है, प्रधान है -संस्कृति। इस प्रकार भारतीय संदर्भों में राष्ट्र अथवा अखंड भारत एक सांस्कृतिक प्रवाह है।
भारतीय वांग्मय में भारतवर्ष की व्याख्या इस प्रकार की गई है:
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ॥
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 24 अगस्त 1953 को हिंदी साप्ताहिक पांचजन्य में इस अवधारणा को समसामयिक संदर्भों में इस प्रकार स्पष्ट किया है, “अखंड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोण का द्योतक है जो अनेकता में एकता के दर्शन करता है। अत: हमारे लिए अखंड भारत कोई राजनीतिक नारा नहीं जो परिस्थिति विशेष में जनप्रिय होने के कारण हमने स्वीकार किया हो बल्कि यह तो हमारे सम्पूर्ण दर्शन का मूलाधार है। 15 अगस्त, 1947 को भारत की एकता के खंडित होने तथा जन-धन की अपार हानि होने के कारण लोगों को अखंडता के अभाव का प्रकट परिणाम देखना पड़ा और इसलिए आज भारत को पुन: एक करने की भूख प्रबल हो गई है। किंतु यदि हम अपनी युग-युगों से चली आई जीवन-धारा के अंत:प्रवाह को देखने का प्रयत्न करें तो हमें पता चलेगा कि हमारी राष्ट्रीय चेतना सदैव ही अखंडता के लिए प्रयत्नशील रही है तथा इस प्रयत्न में हम बहुत कुछ सफल भी हुए हैं।”
दीनदयाल जी ने स्पष्ट किया कि, “एक देश, एक राष्ट्र और एक संस्कृति की जो आधारभूत मान्यताएं हैं, उन सबका समावेश अखंड भारत शब्द के अंतर्गत हो जाता है। अटक से कटक, कच्छ से कामरूप तथा कश्मीर से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भूमि के कण-कण को पुण्य और पवित्र ही नहीं अपितु आत्मीय मानने की भावना अखंड भारत के अंदर अभिप्रेत है। इस पुण्यभूमि पर अनादि काल से जो प्रथा उत्पन्न हुई तथा आज जो है उनमें स्थान और काल के क्रम से ऊपरी चाहे जितनी भिन्नताएं रही हों, किंतु उनके संपूर्ण जीवन में मूलभूत एकता का दर्शन प्रत्येक अखंड भारत का पुजारी करता है। अत: सभी राष्ट्रवासियों के सम्बंध में उसके मन में आत्मीयता एवं उससे उत्पन्न पारस्परिक श्रद्धा और विश्वास का भाव रहता है। वह उनके सुख-दु:ख में सहानुभूति रखता है। इस अखंड भारत माता की कोख से उत्पन्न सपूतों ने अपने क्रिया-कलापों से विविध केंद्रों में जो निर्माण किया उसमें भी एकता का सूत्र रहता है। हमारी धर्म-नीति, अर्थ-नीति और राजनीति, हमारे साहित्य, कला और दर्शन हमारे इतिहास पुराण और आशय, हमारी स्मृतियों विधान सभी में देव पूजा के विभिन्न व्यवधानों के अनुसार बाह्य भिन्नताएं होते हुए भी भक्त की भावना एक है। हमारी संस्कृति की एकता का दर्शन अखंड भारत के पुरस्कर्ता के लिए आवश्यक है।”
सौजन्य : हिंदी विवेक