‘सावरकर को कितना जानते हैं हम’ श्रृंखला – लेख २
हमें यह समझना होगा कि वह सावरकर ही थे, जिन्होंने 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया। सावरकर ने ही लंदन में पहली बार सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन संगठित कर सक्रिय किया। बाल गंगाधर तिलक और श्याम कृष्ण वर्मा ने उन्हें बैरिस्टर की शिक्षा लेने के बहाने 1906 में क्रांतिकारी आंदोलन को हवा देने की दृष्टि से लंदन भेजा था। तिलक उनसे इसलिए प्रभावित थे, क्योंकि सावरकर 1904 में ही ‘अभिनव भारत’ नाम से एक संगठन अस्तित्व में ले आए थे। लंदन जाने से पहले इसका दायित्व उन्होंने अपने बड़े भाई गणोश सावरकर को सौंप दिया था।
लंदन में सावरकर ने भारतीय छात्रों को एकत्रित किया और उनमें राष्ट्रवाद का अलख जगाया। 1906 में सावरकर ने 1857 का स्वतंत्रता समर पुस्तक लिखने का संकल्प लिया। 10 मई 1907 को इस संग्राम की लंदन के इंडिया हाउस में 50वीं वर्षगांठ मनाने का निश्चय किया। इस हेतु सावरकर ने ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ के नेतृत्व में एक भव्य आयोजन की रूपरेखा बनाई। फिरंगी हुकूमत को जब इसकी भनक लगी तो उसने इस आयोजन पर अंकुश लगाने का हर संभव प्रयास किया, किंतु सावरकर के वाक्चातुर्य के चलते अंग्रेज प्रशासन रोक नहीं पाया। इसी दिन सावरकर ने इसे तार्किक रूप में सैन्य विद्रोह अथवा गदर के रूप में खारिज किया और अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का पहला सशस्त्र युद्ध घोषित किया। इस पहली लड़ाई को ‘संग्राम’ का दर्जा देने वाले वे पहले भारतीय थे।
इसी बीच सावरकर ने मराठी व अंग्रेजी में ‘1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ शीर्षक से इतिहास-पुस्तक लिखी। भारतीय दृष्टिकोण और ऐतिहासिक सच्चाइयों को तथ्य, साक्ष्य व घटनाओं के साथ किसी भारतीय इतिहास लेखक द्वारा लिखी यह पहली इतिहास-पुस्तक थी। इसी कालखंड में सावरकर और मैडम कामा ने मिलकर ‘राष्ट्रीय-ध्वज’ बनाया। दरअसल जर्मनी के स्टूटगार्ट में समाजवादियों का वैश्विक सम्मेलन आयोजित था। सावरकर की इच्छा थी कि इसमें कामा द्वारा भारत के ध्वज का ध्वजारोहण किया जाए। सावरकर इस उद्देश्य की पूर्ति में सफल हुए। इस समय तक सावरकर तिलक के बाद सबसे ज्यादा ख्यातिलब्ध क्रांतिकारी हो गए थे।
उसी कालखंड में खुदीराम बोस समेत तीन अन्य क्रांतिकारियों को दी गई फांसी से सावरकर बहुत विचलित हुए और उन्होंने इन फांसियों के लिए जिम्मेदार अधिकारी एडीसी कर्जन वायली से बदला लेने की ठान ली। मदनलाल ढींगरा ने उनकी इस योजना में जान हथेली पर रखकर शिरकत की। सावरकर ने उन्हें रिवॉल्वर हासिल कराई। एक कार्यक्रम में मौका मिलते ही ढींगरा ने कर्जन के मुंह में पांच गालियां उतार दीं और आत्मसमर्पण कर दिया। इस जानलेवा क्रांतिकारी गतिविधि से अंग्रेज हुकूमत की बुनियाद हिल गई। इस घटना के फलस्वरूप समूचे भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध माहौल बनने लगा।
इस बीच कुछ अंग्रेज भक्त भारतीयों ने इस घटना की निंदा के लिए लंदन में आगा खां के नेतृत्व में एक सभा आयोजित की। इसमें आगा खां ने कहा कि ‘यह सभा आम सहमति से एक स्वर में मदनलाल ढींगरा के कृत्य की निंदा करती है।’ किंतु इसी बीच एक हुंकार गूंजी, ‘नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। मैं इस प्रस्ताव का विरोध करता हूं।’ यह हुंकार थी वीर सावरकर की। इस समय तक आगा खां सावरकर को पहचानते नहीं थे। तब उन्होंने परिचय देने को कहा। सावरकर बोले, ‘जी मेरा नाम विनायक दामोदर सावरकर है और मैं इस प्रस्ताव का समर्थन नहीं करता हूं।’ अंग्रेजों की धरती पर उन्हीं के विरुद्ध हुंकार भरने वाले वे पहले भारतीय थे।