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संत रविदास के काव्य में समरसता..

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मध्यकालीन भक्ति आंदोलन में संतों का विशिष्ट योगदान है। संतों ने अपनी वाणी में साधना के अनुभव दर्शन संबंधी विचार प्रकट किए हैं। वही संतों की घुमक्कड़ प्रवृत्ति के कारण घूम-घूम कर समाज को देखा और समझा उन्होंने सामाजिक विषमता के विरुद्ध अपना स्वर बुलंद किया। संतों ने ज्ञान के बल पर सामाजिक अंधविश्वास कुरीतियाँ बाह्य आडम्बर, जाति भेद, भक्ति भेद आदि पर प्रहार किया । निम्न जाति से आए लगभग सभी संतो ने जो भेदभाव देखा होगा उसकी समता के लिए ही भक्ति मार्ग के द्वारा अपनी अभिव्यक्ति की है।

भारतीय संत परंपरा में जहाँ कबीर का नाम प्रमुखता से आता है वही साथ ही मलूकदास, रविदास, दादूदयाल ,पीपा ,पलटूदास ,सुंदरदास, आदि संतों का समावेश होता है। रविदास जो रैदास के नाम से प्रसिद्ध है, जो कर्म के आधार पर चमार कहलाते थे कर्म के साथ भजन की संबंधित क्रिया करने वाले रविदास के पद भजन का ही रूप है।

जीवन परिचय: संत समाज में ही नहीं बल्कि समूचे भारतीय समाज में संत रविदास का नाम अत्यंत श्रद्धा से स्मरण किया जाता है। इनके जन्म, माता-पिता, मृत्यु तिथि आदि के संबंध में अनेक मत प्रचलित है। इनका जीवन परिचय जनश्रुतियों एवं अनुमान एवं अवलंबित होता है ।माना जाता है कि संत रविदास संत कबीर के समकालीन थे और उनका जन्म सन 1388 ई को मांडुर (बनारस) के एक गरीब परिवार में हुआ इसके संबंध में कुछ प्रमाणिक जानकारी नहीं मिलती। यह माना जाता है कि वह 15वीं सदी में विद्यमान थे ।रविदास पंथियो का एक बड़ा भाग उन्हें पश्चिमी प्रांत का निवासी मानता है। रविदास के जन्म के संबंध में इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वह बनारस में प्रकट हुए थे ।रविदास रामायण में भी ‘काशी ढिंग मांठुर स्थाना’ का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। संत रविदास के जन्म के संबंध में डॉक्टर सुखदेव सिंह गहन विमर्श के बाद कहते हैं कि संवत 1441 से संवत 1445 के मध्य, जिस वर्ष माघ की पूर्णिमा रविवार को पड़ती है वही संत रविदास का निश्चित जन्म तिथि मानी जानी चाहिए।

रविदास के पिता का नाम रघु और माता का नाम कर्मा देवी था। उनकी पत्नी का नाम लोना माना जाता है और वे रामानंद के शिष्य थे। उनका मोक्ष स्थान काशी का गंगा घाट था। यह तिथि संवत 1540 में चैत्रवदी चतुर्दशी को मानी जाती है। कुछ विद्वान सन 1518 को उनकी की मृत्यु तिथि मानते हैं। रविदास गृहस्थ जीवन जीते हुए भी उच्च कोटि के संत के रूप में विख्यात थे। उनकी अपार लोकप्रियता, विलक्षण ज्ञान और व्यापक प्रभाव के संबंध में अनेक किवदंतियाँ प्रचलित है। देश के अनेक भागों के लाखों लोग उनके अनुयायी है।प्रसिद्ध कृष्णभक्त मीरा ने उनसे दीक्षा प्राप्त की थी और वह मीरा के गुरु थे ।

रविदास चर्मकार जाति के थे। गुरु ग्रंथ साहब में शामिल पद में उनकी जाति का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है।

“मेरी जाति कुटीर बांठला ढोर ढोवत, नित ही बनारसी आस पासा।
अब विप्र प्रधान सहित कर ही, डंडउति तेरे सरजाई रविदास दासा।।”

संत रविदास ने अपनी जाति का उल्लेख अनेक पदों में किया है।

कहि रैदास खलास चमार, जो हम सहरी सो मीतु हमार।
मेरे रमईए रगु मजीठ का, कहु रविदास चमार।।”

अपने दारिद्र तथा निम्न जाति में उत्पन्न होकर भगवान की भक्ति और उपदेश करने के कारण रविदास को उच्च वर्ग में ही नहीं बल्कि अपने घर परिवार और समाज में भी उपहास का पात्र बनना पड़ा। उपहास की पीड़ा उनके पदों में अभिव्यक्त हुई-

“ हम अपराधी नीच घर जनमे, कुटुंब लोग करे हासी रे।
दारि तु देखि सभको हंसे ऐसी दया हमारी।।”

उनकी वाणी का प्रभाव समाज के सभी वर्गों पर हुआ था। संत रैदास ने अपने आचरण और व्यवहार से प्रमाणित कर दिया कि मनुष्य अपने जन्म और व्यवसाय के कारण महान नहीं बनता बल्कि विचार की श्रेष्ठता और गुण के आधार पर ही वह श्रेष्ठ बनता है। अपनी भगवत भक्ति एवं सदाचार से संत रविदास काशी के पंडितों के लिए भी स्वीकार्य और प्रणम्य हो गए। इसी संदर्भ में आचार्य रजनीश अपने विचार व्यक्त करते हैं “भारत का आकाश संतों के सितारों से भरा। आकाश मे अनंत-अनंत सितारे हैं। यद्यपि ज्योति सबकी एक है। संत रविदास उन सब सितारों में ध्रुव तारा है- इसलिए कि शुद्र के घर में पैदा होकर भी काशी के पंडितों को भी मजबूर कर दिया स्वीकार करने को”।

रविदास की रचनाएँ: रैदास ने पदो और साखियों की रचना की है। उनके पद गुरु ग्रंथ साहब में संकलित है। रविदास की वाणी , रविदास के पद नाम से उनकी वाणी का संग्रह तैयार किया गया है। परंतु रविदास की रचनाओं का पूरा प्रमाणिक संग्रह अभी तक उपलब्ध नहीं है। रैदास ने अपने समय के समाज में पीड़ित जन समुदाय की भावनाओं को समझा और उसे जन भाषा में जनता के समक्ष रखा। उनके जीवन और काव्य का प्रमुख उद्देश्य समाज कल्याण था उनके काव्य में कबीर जैसी खंडन मंडन की प्रवृत्ति और भाईचारों पर उग्र आक्रमण का आवेश नहीं दिखाई देता। रविदास की वाणी पढ़ने से एक ऐसी भावना भक्त के हृदय में घर कर लेती है जो भागवत प्रसाद को परम पुरुषार्थ मानता है।

संत रविदास बहुत ही परोपकारी तथा दयालु स्वभाव के थे। उनकी वाणी में भक्ति भावना, कर्तव्य पालन ,सत्संग, नाम स्मरण, समाज का व्यापक हित, मानव प्रेम आदि दृष्टिगत होते हैं। संत रविदास जी ने अपने काव्य में विविध भाव को प्रकट किया है। रविदास वाणी के एक पद में उनका ईश्वर के प्रति पूर्ण निश्चल प्रेम और समर्पण भाव संप्रेषित होता है। वह नम्रता पूर्वक कहते हैं-

“ प्रभु जी तुम चंदन हम पानी,
जाकी अंग-अंग बास समानी।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा ,
ऐसी भगति करै रैदासा।।”

संत रविदास एक पद के माध्यम से मनुष्य को सच्चाई, ईमानदारी के द्वारा किए गए श्रम का महत्व समझाते हुए कहते हैं-

“ रैदास श्रम करि खाइहि,
जो लौ पार बसाय।
नेक कमाई जौ करइ,
कबहुँ ना निहफल जाय।।”

उपरोक्त पद में रविदास जी श्रम का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं, जो मनुष्य श्रम कर अपना जीवन निर्वाह करता है, सच्ची और ईमानदारी से कमाई करता है उनके श्रम कभी भी व्यर्थ या निष्फल नहीं जाता बल्कि उनका कल्याण होता है। वह अपने जीवन में सफल होते हैं। संत रविदास ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जिसमें समता की भावना हो। कोई ऊंचा-नीचा न हो ,कोई पराधीन ना हो, सभी में भाईचारे की भावना हो, समाज में कोई दीन, न हो कोई हीन हो, न कोई दुखी हो समाज में संपन्नता हो, ऐसे समाज की संरचना में ही आदर्श समाज की पृष्ठभूमि होती है यथा-

“ऐसा चाहो राज में
जहां मिले सबन को अन्न ।
छोटो बड़ो सब सम बसै
रैदास रहै प्रसन्न।।

रविदास जी समता से परिपूर्ण राज्य की कामना करते हैं। वह एक ऐसा राज्य चाहते हैं जहाँ सभी को अन्न, सब सुख-सुविधा प्राप्त हो, इसमें छोटे-बड़े, उच-नीच सभी को समान अधिकार प्राप्त हो ,वह समतापूर्वक जीवन यापन करे।

संत रविदास का आविर्भाव जिस युग में हुआ था वह युग सामाजिक विषमता से कराह रहा था। यह विषमता धर्म-संप्रदाय, वर्ण-वर्ग और जाति सभी दृष्टियों से व्याप्त थी। वर्ण एवं जाति-पाति की व्यवस्था के विरुद्ध संत रविदास जी द्वारा लड़ी गई जंग में सर्वाधिक उज्जवल और सलाघनीय पक्ष यह रहा कि इस जंग का केंद्र बिंदु समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व की स्थापना करना था। वह किसी वर्ग विशेष के विरुद्ध नहीं थे, जाति-पाति की चक्की में पिसते निम्न वर्गों को बचाना उनका ध्येय था। वह वर्ण-जाति जनित असमान व्यवहार को समूल नष्ट करना चाहते थे। उनकी रचना में मानवता के भाव प्रबल थे सामाजिक संरचना का आधार जाति-पाति रहे यह उन्हें रंच मात्र स्वीकार नहीं था। समाज के प्रत्येक मनुष्य को आपस में जोड़ने के लिए जाति-पाति का समाप्त होना आवश्यक है। ऐसा रविदास का मानना था। संत रविदास इस सत्य को भली-भांति समझते थे तभी तो वह कहते हैं-

“ जात जात में जात है जो केलन में पात।
रैदास, नमानुष जुड़ी सकै, जो लौ जात न जात।।”

रविदास की दृष्टि में जाति यह कदली के पेड़ के समान है । जिस प्रकार केले के पेड़ में पत्ते के अंदर पत्ता, फिर उसके अंदर दूसरा पत्ता; इसी प्रकार एक के बाद एक पत्ते से पत्ता निकलता है, ठीक यही दशा भारतीय समाज व्यवस्था की है। जिसमें एक प्रमुख जाति के बाद जाती फिर उसके बाद उसकी उपजाति, उसके भीतर फिर जाती इस प्रकार अंत तक जाति के बाद जाति ही जाति देखने को मिलती है। इस प्रकार की जाति प्रथा का रविदास जी ने तीव्र विरोध कर जाति विहीन समाज व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं ।इसलिए संत रविदास मानव को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र के रूप में विभक्त करके नहीं देखे बल्कि सबको एक समान देखते हैं इस संबंध में उनका यह पद उल्लेखनीय है-

“ रविदास जात मत पूछहूं का जात का पात।
ब्राह्मण, खत्री,बैस, सूद्र सभन की एक जात
जात-पात के फेर महि ,उरझि रहइ सब लोग।
मनुषता को खात हइ रविदास जात का रोग।।”

संत रविदास किसी को भी ऊंचा या नीचा नहीं मानते है। जाति के स्थान पर उन्होंने कर्म को प्रधानता दी है। उच्च या नीच कार्यो के आधार पर किसी को ऊंचा या नीचा नहीं कहा जा सकता अर्थात व्यक्ति की श्रेष्ठता का आधार उसके कर्म है। कर्म का महत्व जीवन में जन्म से अधिक है। रविदास समता और एकता के समर्थक थे। रविदास जाति-पाति वाली समाज व्यवस्था के प्रति उदासीन भी नहीं थे ।वरन एक साहसी वीर की भांति इस दुराग्रही बुराई के विरोध में मुखर हुए थे ।वह स्पष्ट शब्दों में बिना लाख लपेट के कर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-

“रैदास ब्राह्मण मति पूजिए, जड़ होवे गुणहीन
पूजहि चरण चंडाल के, जौ होवे गुन परवीन।।”

रविदास के अनुसार जाति या वर्ण के अनुसार कोई भी व्यक्ति पूजनीय नहीं होता। संत रविदास ने कबीर के समान जाति की अपेक्षा ज्ञान को महत्व प्रदान किया है। उनका मानना है कि जन्म से ब्राह्मण व्यक्ति जो अज्ञानी हो, गुणहीन हो ,उसे नहीं पूजना चाहिए बल्कि एक चांडाल जाति का व्यक्ति जो ज्ञानी हो, गुणवान हो उसकी पूजा करनी चाहिए। संत रविदास सामाजिक समता और परस्पर आत्मीयता एवं सौहार्द की प्रतिष्ठा का सफल प्रयत्न किया। वह एक परम संत आचार्य निष्ठ व्यक्ति थे ।उनके अनुसार मनुष्य का कर्म ही उसका चरित्र का निर्धारण करता है संत रविदास बाह्य आडंबर की अत्यधिक विरोधी थे। वह दिखावा और पाखंड का विरोध करते हुए पाखंडियों को फटकारते हुए कहते हैं –

“माथै तिलक हाथ जप माला,
जग ठगने कू स्वांग बनाया”।

साथ ही वे तीर्थ यात्रा, व्रत आदि पर प्रहार करते हुए कहते हैं-

“ तीरथ व्रत करूं अंदेशा, बिन सहज सिद्ध ना होय।।”

यह पंक्तियां रविदास के वैचारिक दर्शन को स्पष्ट करती है उनके अनुसार रविदास जी तीर्थ स्नान करना, व्रत, तिलक लगाना और माला जपना आदि बाह्य आडंबर के एकदम विरोधी थे संत रविदास निराकार ईश्वर की प्रेम पूर्वक दृढ़ भक्ति में विश्वास रखते हैं ।उन्हें अपने गोविंद पर अटल विश्वास है जो धर्म ग्रंथो से निर्भय होकर उनपर कृपा करेंगे ।

“ जाकी छोति जगत कउ लागै, ता पद तू ही ढरै।
नीचह ऊँच करै मेरा मालिक काहू ते न डरै।।
नामदेव कबीरू तिलोचनु सघना सैनु तरै।
कहि रविदास सुनहुरे संतुहु हरि जीउते सभै सरै।।”

उपयुक्त पंक्तियों में संत रविदास कहते हैं कि जिस निम्न अछूत वर्ग की छूत मनुष्य को लगती है उसे पर भी प्रभु कृपा करते हैं, गोविंद निडर है वह नीच को भी उच बनाते हैं। इन्हीं गोविंद की कृपा से नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सघना, सेन नाई, भव पास से मुक्त हुए। रविदास कहते हैं कि ‘हे संतो सुनो परमात्मा की कृपा से सब का उद्धार होता है।’

कबीर के समान रविदास जी ने ही एक ही ब्रह्मा का सकल संसार बताकर मानव-मानव के बीच एकता का संदेश दिया है ।वह कहते हैं-

“रविदास एकै ब्रह्मा का होई रहयो सगल पसार,
एक माटी सब घर स्त्रजै एकै सबकूँ सिरजनहार।।”

रविदास सामाजिक ,धार्मिक एकता, समता व निम्न वर्ग के आत्म गौरव को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील थे। उनकी दृष्टि में सभी मनुष्य एक समान है, उनका ईश्वर एक है। संत समन्वयवादी थे उनका एकमात्र उद्देश्य विशृंखलित भारतीय समाज में सामंजस्य स्थापित करना था ।वह व्यापक जीवन तत्व और आध्यात्मिक चेतना के आधार पर समरसता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। वे मानव के साथ मानवीय चेतना के सामंजस्य के प्रति यथेष्ट-सचेष्ट थे। उनकी सांस्कृतिक चेतना का आधार था स्वानुभूति, प्रतिभा अथवा स्वयं अर्जित ज्ञान ।रविदास ने कर्मकांड, भारी वेशभूषा, तीर्थ यात्रा व धर्म मैं व्याप्त आडंबर, पाखंड की जमकर आलोचना की। उन्होंने समता मूलक समाज व्यवस्था को स्थापित करने में अभूतपूर्व वैचारिकता प्रदान की। उन्होंने अपनी वाणी से सामाजिक विषमता को छिन्न-भिन्न करके मानव-मानव के मध्य एकता, समता, सौहार्द और सहज जीवन जीने का संदेश दिया है।

लेखक :- डॉ कमल किशोर गुप्ता, दादा रामचंद बाखरू..
सिंधु महाविद्यालय,नागपुर

संदर्भ:

-श्रवण परंपरा और गुरु रैदास- डॉ महेश प्रसाद अहिरवार- पृष्ठ 63
-संत साहित्य में दलित चेतना- हुकुम सिंह- पृष्ठ 118
-रविदास समग्र संपादन- डॉ युगेश्वर- पृष्ठ 118
-रविदास समग्र संपादन- डॉ युगेश्वर- पृष्ठ 99
-श्रवण परंपरा और गुरु रैदास- डॉ महेश प्रसाद अहिरवार- पृष्ठ 39
-श्रवण परंपरा और गुरु रैदास- डॉ महेश प्रसाद अहिरवार- पृष्ठ 106
-श्रवण परंपरा और गुरु रैदास- डॉ महेश प्रसाद अहिरवार- पृष्ठ 56-57

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